सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

गधों पर चुनावी बोझ

चुनाव भी बोझ से कम नहीं हैं और इस बोझ को उठाने का दायित्व नेता बखूबी निभाते हैं। चुनावी दौर बहुत लंबा चलता है, ऐसे में यह भारी भरकम बोझ कई दफा नेताओं से संभल नहीं पाता। इसे संभालने के लिए कोने-कोने से बड़ी तादाद में कार्यकता बुलाए जाते हैं। उसमें कुछ कार्यकर्ता तो भाड़े के भी होते हैं, जो पीठ पर भार लेकर चल रहे नेताओं के धक्का लगाते हैं। इस बार कार्यकर्ता भी थके-मांदे लग रहे हैं। अब जब नेताओं से बोझ संभल नहीं रहा तो गधों को चुनाव में आमंत्रण भेज दिया गया है। ताकि चुनाव का बोझ गधों पर लादा जा सके। क्योंकि दुनिया के किसी भी कोने में गधे से ज्यादा सहनशील प्राणी नहीं पाया जाता।

इतिहास भी गवाह है कि गधों ने आज तक कभी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। न ही कभी उत्पात या आतंक मचाया। वे कभी किसी को कुछ नहीं कहते हैं, जो भी भार उन पर रख दिया जाता है उसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। यही गधों की नियति भी है। गधे तो मानते भी हैं कि उनको बोझ ढोने का काम विरासत में मिला है। वे कई पीढिय़ों से इस काम को बड़ी कुशलता से करते आ रहे हैं। बोझ ढोने में कभी उनका एकछत्र राज भी रहा है। परंतु कमबख्त वाहनों के आ जाने के कारण उनका यह काम थोड़ा सा मंदा हो गया है। जब गधों का जमाना था। तब उनके मालिक उनका पूरा ख्याल रखते ?थे। वाहनों के कारण वे पिछड़ गए। क्योंकि अब जन-जन तक गाड़ी की पहुंच है। गधा मालिक के हुकुम का गुलाम होता था। शहरों में तो गधे दिखाई ही नहीं देते हैं, जैसे गधों की तादाद कम होती जा रही है।

खलखाणी माता व गर्दभ मेले के नाम से विख्यात एशिया के सबसे बड़े गधे मेले में भी अब हर साल घोड़े ही ज्यादा हिनहिनाते हैं। वैसे अब कुत्ते ज्यादा पाले जाते हैं, वे मालिक के वफादार भी माने जाते हैं। हालांकि अलग कहानी भी प्रचलित है जिसमें कुत्ते की जगह गधा वफादारी दिखाता है और इस वफादारी के चंगुल में फंस कर वह मालिक क्रूरता का शिकार होता है और मुफ्त में बेमौत मारा जाता है। इंसान यह कहानी भूल से गए, पर गधे इसे विस्मृत नहीं कर पाए। सो चुनाव में आने से कतरा रहे हैं।

उनमें अभी उनकी प्रकृति विद्यमान है, लेकिन उनके कुछ चाल-चलन व लक्षण मानव प्रकृति में घुलनशील हो गए। लिहाजा, उनकी बिरादरी अपनी सी लगने लगी है। उनको नाकारा समझा जाता है। अगर इनका अस्तित्व का विनाश भी हो जाए तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इन्हें बचाने के लिए कभी पशु प्रेमी भी आगे नहीं आते। कभी आए भी होंगे तो आवाज वन्यजीव संरक्षण जैसी नहीं रही होगी। गधा मामूली टिंगना ही तो रह गया, वरन कद ऊंचा होता तो यह भी घोड़ा बन सकता। आखिर है तो यह भी उन्हीं की फैमिली का। गधे के समान भाव से कभी उसके दुखी या सुनी होने का भी पता नहीं चलता।

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