सोमवार, 3 जुलाई 2017

टंकी में कबूतर

सचिवालय की टंकी पर कबूतर उड़ रहा था। कभी इधर, कभी उधर। जैसे आज उसने तय कर लिया था कि सरकार को सबक सिखा कर ही रहेगा। जैसे ही कबूतर के उडऩे पर फडफ़ड़ की आवाज आती तो सचिवालय परिसर में टहल रहे कर्मचारी उसकी तरफ देख लेते। अब भला कबूतर तो कबूतर होता है वह टाइगर तो है नहीं, जो सबको भयभीत कर दे। बल्कि शांति दूत माने जाने वाले कबूतरों के बीच में से दौड़ कर उनको तंग करना तो मानव अपना धर्म समझते हैं। फिर भी कबूतर बार-बार सबका ध्यान अपनी तरफ खींचने में कामयाब हो रहा था। कोई हंसता या नहीं, लेकिन कबूतर जीभर कर इतरा रहा था कार्मिकों के बार-बार सिर उठाकर उसकी तरफ देखने पर। कार्मिकों की इस क्रिया पर वह अपनी विजयी पताका लहरा रहा था, जैसे उसने कोई किला फतह कर लिया था। कबूतर की बारंबार इस हरकत को कार्मिकों को भान हो गया था कि कबूतर उनके मजे ले रहा है। फिर भी कबूतर इधर-उधर उड़ता रहा। काफी देर हो जाने के बाद भी जब उसने यह महसूस किया कि अब उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा है। कबूतर टंकी से बार-बार गर्दन झुका कर सचिवालय परिसर की तरफ देखता। सब कार्मिक एक-दूसरे से बतिया रहे थे। 

अनवरत पत्रिका के मई 2017 के 'युवा व्यंग्य विशेषांक' में प्रकाशित व्यंग्य
कैन्टीन की तरफ भी मुड़ कर देखा तो उसने कहा, 'ये निट्ठले कार्मिक आज भी काम नहीं कर रहे हैं। आराम से कैन्टीन में बैठकर सुस्ता रहे हैं। बहुत से लोग दो वक्त की रोटी के लिए कड़ा परिश्रम करते हैं और सरकार इनको मुफ्त का वेतन दे रही है।' कुछ देर बाद कबूतर टंकी से गायब हो गया। जो कार्मिक सचिवालय परिसर में टहल रहे थे यकायक उनमें से एक की नजर टंकी पर गई। वहां कबूतर नहीं था। कार्मिक को संदेह था कि कबूतर टंकी में गिर गया। उसने कबूतर की जासूसी शुरू कर दी। कार्मिक की नजर एक पल के लिए भी नहीं झुकी। फिर उसने धीरे से कहा, 'लगता है कबूतर टंकी में गिर गया।' पास से गुजर रहे दूसरे कार्मिक ने उसकी बात सुन ली। उसने तीसरे कार्मिक को बोला, 'टंकी में कबूतर गिर गया।' लेकिन उसने सवाल नहीं पूछा। यह बात चौथे कार्मिक के पास पहुंची। धीरे-धीरे प्रत्येक कार्मिक के मुंह पर यह बात आ गई थी कि टंकी में कबूतर गिर गया। अभी सुबह के ग्यारह भी नहीं बजे थे कि इस हल्ले से पूरा सचिवालय हिल गया था। कर्मचारी ही नहीं, अधिकारी भी इस बात से वाकिफ हो गए थे। इस टंकी का पानी पूरा सचिवालय पीता था और आ


गंतुक भी। सबसे पानी का त्याग कर दिया। पानी हलक में उतारना तो दूर उसके हाथ भी नहीं लगाना चाहते थे। तब ही एक अधिकारी ने दूसरे से कहा, 'तुम तो टंकी का पानी पी सकते हो तुम्हें क्या फर्क पड़ता है। तुम यूं भी मांसाहारी हो।' दूसरे अधिकारी पलट कर जवाब दिया, 'फर्क कैसे नहीं पड़ता। इसमें और उसमें बहुत फर्क है। इस पानी को पी लूं तो बीमारी हो सकती है। वह भी ऐसी जो प्राण लेेने पर ही पीछे छूटेगी। बाहर से मौल का पानी मंगवा कर ही पी लूंगा। कम से कम बीमारी से तो बच सकूंगा।' उसकी बात सुनकर बाहर से बोतलबंद पानी मंगवाने की होड़-सी मच गई। चपरासी लोग बोतलबंद पानी लाने के लिए दौड़ पड़े। जैसे कोई मैराथन में हिस्सा ले रहे हो।  मैराथन भी ऐसी थी कि एक चपरासी अपने ही करीबी चपरासी को पराजित करने पर उतारू था। वे कह रहे थे कि अगर मैं पहले बोतल न लाया तो यह मुझ पर उम्रभर की नौकरी पर धब्बा लग जाएगा। कुछ चपरासी ऐसे भी थे, जो साब को तंग करना चाहते थे। कहावत तो यह है  अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे, लेकिन वे बोल रहे थे, 'आज आया अफसर कबूतर के नीचे।' उसने खुद तो बाहर जाकर गला तर कर लिया और साब इंतजार करते-करते थके जा रहे थे। वापस आए तो सफाई दी, 'साब बोतल खरीदने के लिए भीड़ लगी थी। नंबर ही नहीं आ रहा था। आपका नाम भी लिया तो उसने अनसुनी कर दी। शायद आपका कोई सताया हुआ दुकानदार लग रहा था। वह आज बदला पूरा करना चाहता था।' सचिवालय में गुहार लेकर आए अफसरों से मिलने के लिए मारे-मारे फिर रहे थे। परंतु कोई चैम्बर में सीट पर नहीं टिका था। कोई चैम्बर में था भी तो वहां से कबूतर पर चर्चा की आवाज आ रही थी। हड़कंप मचा हुआ था। चपरासी चैम्बरों की तरफ पानी की बोतलें ले-लेकर भाग रहे थे। जैसे कहीं पर आग लग गई हो, लेकिन अग्निशमन के पास पानी का अकाल पडऩे के कारण आग बुझाने के लिए अफरा-तफरी मची। दुनियाभर से सताए लोग कह रहे थे, 'लगता है कहीं पर बड़ी आगजनी हुई है।' थी तो यह आग ही, लेकिन यह आग मकान या दुकान में नहीं लगी थी न ही दफ्तर में रखी काले कारनामों की फाइलों में। यह आग लगी थी कुर्सी में समाए अफसरों के गले में। बोतल पाते ही साब उस आग को बुझाने के लिए टूट पड़े। परंतु यह आग एक बोतल में बुझने वाली नहीं थी। बाहर दुकानों पर भी बोतलें खत्म हो गई थीं, जैसे कोई भंडारा लुट गया हो। वैसे भंडारा कभी लुटता नहीं है, इसलिए उसे भंडारे की संज्ञा दी जाती है। लेकिन यह विलक्षण घटना थी। सचिवालय के अब तक के इतिहास में इस तरह की किसी घटना का उल्लेख नहीं था, लेकिन अब इस महाघटना को शामिल करना बेहद आवश्यक था। एक साब ने  बोतलें खरीदने का इमरजेंसी बिल पास कर दिया। 

साब लोग तो अपना दिमाग बोतलबंद पानी में खर्च कर चुके थे। तब ही एक चपरासी ने दिमाग लगाते हुए टंकी साफ करने के सुझाव को टेबल पर सरकाया। 'शाबाश, अब तक कहां थे?' चपरासी साब के पीठ थपथपाने से खुश था, मगर साब के सवाल से ऐसे लगा, जैसे वह सचिवालय से हमेशा गायब ही रहता है। खैर, जब चपरासी टंकी के पास गया तो उसके साथ एक-दो साब और चार-पांच चपरासी भी थे। चपरासी ने टंकी में देखा तो उसे कहीं भी कबूतर नजर नहीं आया। एक-एक कर सभी ने टंकी की टोह ली, लेकिन कबूतर जैसा कोई जीव उसमें नहीं था। तब ही किसी ने कहा, 'साब, ढकी हुई टंकी में कबूतर अंदर कैसे गिर सकता है?' यह सवाल ऐसे गिरा, जैसे किसी देश पर बमबारी हो गई हो। सब हां में हां मिलने लगे। पर कुछ का मन नहीं मान रहा था। उनको अभी संशय था और टंकी के पानी को अपनी जीभ पर नहीं लगाना चाहते थे। जैसे ही साब ने टंकी का पानी बहाने का आदेश दिया। सबने उस पर सहमति का ठप्पा लगा दिया। टंकी का पानी नाले में बहा दिया गया। 

नाले में जब पानी बह रहा था तब बाढ़ सा दृश्य नजर आ रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे थोड़ी देर बाद सारी बस्तियां उजड़ जाएंगी और लोग जीवन बचाने की जद्दोजहद करने लगेंगे। धीरे-धीरे टंकी का पानी खत्म होता जा रहा था। साब लोग इस बात को सोच कर खुश हो रहे थे कि उन्होंने अपना जीवन बचा लिया टंकी के दूषित पानी को बहा कर। वे यह भूल गए कि आज भी लोगों के नलों में दूषित पानी पीने के कारण लोग बीमार हो रहे हैं। विभाग में रोजाना शिकायतें पहुुंचती हैं, अफसरों के फोन की घंटियां बजती रहती हैं, मंत्री चुप्पी साधे बैठे रहते हैं, पर कार्रवाई के नाम पर ठेंगा दिखाया जाता है। बहते पानी को साब लोग कौतुहल भरी नजर से देख रहे थे और अपनी पीठ थपथाप रहे थे कि उन्होंने बहुत बड़ा काम किया है। इसलिए तो उनको इनाम तक मिलना चाहिए। तब ही पेड़ पर बैठे कबूतर पर एक साब की नजर गई, 'वो रहा कबूतर।' इतने में ही कबूतर वहां से उड़ कर साब लोगों के सिर पर फडफ़ड़ाने लगा, जैसे उनसे कह रहा हो, 'लोगों को जल बचाने की नसीहत देते हो और खुद जल व्यर्थ बहा रहे हो।' साब सिर से कबूतर दूर करने के लिए हाथ हवा में उड़ा रहे थे। 

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

सवाल 'उठने' की 'खुशी'

सवाल 'उठाना' अक्लमंदी का परिचायक है। यह एक कला भी है। किसी काम में संवेदनशीलता और कर्तव्यबोध होता है तब ही सवाल 'उठाया' जाता है। पर यह सवाल 'सो' कैसे जाता है। सवालों को भी इंसानों की तरह ही सोने की आदत है। 'उठता' सवाल है, पर उसका श्रेय उठाने वाले को दिया जाता है। उठने का मतलब एकदम से उठना भी नहीं होता है।

अगर बिस्तर या पलंग या फर्श पर आराम फरमा रहा है तो इसके आराम करने से इंसान को क्या तकलीफ है, जो उसे यूं बेकद्री से 'उठा' दिया जाता है। सवाल भी आखिर हमारी तरह थक जाते हैं, फिर थोड़ी देर सुस्ता लिया तो उसने जुर्म तो नहीं कर दिया। कुछ ऐसे भी सवाल हैं, जिनकी कभी सुध ही नहीं ली जाती। उनकी तरफ कोई मुंह उठाकर नहीं देखता। बस वे कुंभकर्णी नींद में सोते रहते हैं। अगर ऐसे सवाल को 'उठाया' जाता है तो जनता पर बेहद करम होता है, क्योंकि उससे संबंधी मामले के घपले का सारा काला चिट्ठा सामने आ जाता है। ऐसे सवाल उठाने वाले को पुरस्कार भी दिया जाना चाहिए। कुछ सवाल ऐसे भी हैं, जो उठने के बाद फिर उबासी लेकर सो जाते हैं। वैसे कुछ शख्स ऐसे होते हैं, जो इशारा करके दमदार या वाक्पटुता के धनी लोगों की सवाल उठाने में मदद करते हैं।

सवाल उठाने वाला महान होता है और सहयोग करने वाले थोड़े कम महान। सवाल सो कर उठ गया यह बात यही समाप्त नहीं हो जाती। क्योंकि सवाल उठने से पहले बैठता भी है। कई दफा बैठे सवाल को ही उठाया जाता है। बिल्कुल सावधान की मुद्रा में। इस मुद्रा में सवाल को देख सामने वाला कांप उठता है। प्रतिद्वंद्वी सोचता है कि सवाल कहां से आ उठा। वह भी इस रूप में, जिससे कदापि नहीं बचा जा सकता। जैसे उसने सवाल का रौद्र रूप देख लिया हो। ऐसे सवाल जल्दी से न तो बैठ पाते हैं न सो पाते हैं। इससे विपक्षी की नींद हराम हो जाती है। पर सवाल उठने के बाद मामले का पूरा रसास्वाद लेता है। उसका आनंद पब्लिक पैलेस पर भी नजर आता है।

सवाल उठाने की प्रथा मानव जन्म के साथ ही शुरू हो गई थी। या फिर मानव से पहले धरती पर सवाल जन्म लेने लगे थे। कई सवाल तो तब ही से नींद की आगोश में है। कई सवाल मर चुके हैं, जो कइयों का पुनर्जन्म हो चुका है। सवाल उठाने वालों को बुद्धिजीवी समझा जाता है। क्योंकि ये सब सवाल जन के प्रतिनिधि, मंत्री, अफसरशाही पर उठाए जाते हैं, जो कि विकास और प्रगति का सूचक होते हैं। कुछ सवाल ऐसे भी होते हैं, जो रोड पर लावारिश पड़े होते हैं। उनका कोई रखवाला नहीं होता। कुछ सवाल गड्ढों में पड़े सुबकते रहते हैं तो कुछ गंदगी में दुर्गंध मारते रहते हैं। बंद नल, हैंडपंप व नलकूप से पानी की जगह सवाल टपकते हैं।

कुएं, तालाब व बावड़ी आदि जलस्रोत भले ही पानी से न भरे हो, लेकिन सवालों से लबालब रहते हैं। रात के वक्त रोड लाइट बंद हो तो अंधेरे में कुछ दिखे या न दिखे, पर सवाल जरूर दिख जाते हैं, जैसे आसमान में तारे नजर आते हैं। सवाल कोई सा भी हो, उसे उठाना जरूरी है। वैसे सवाल को जवाब देकर गिराने की पुरजोर कोशिश की जाती है, लेकिन इसे अनुभव के साथ थामे रखने की कालाबाजी काम आती है। आजकल सवाल दागा भी जाने लगा है, जैसे सवाल नहीं वह कोई मिसाइल हो। जिसके मुख मंडल से निकलने के बाद गड़बड़ वाले इलाके में हलचल मच जाती है।

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

गधों पर चुनावी बोझ

चुनाव भी बोझ से कम नहीं हैं और इस बोझ को उठाने का दायित्व नेता बखूबी निभाते हैं। चुनावी दौर बहुत लंबा चलता है, ऐसे में यह भारी भरकम बोझ कई दफा नेताओं से संभल नहीं पाता। इसे संभालने के लिए कोने-कोने से बड़ी तादाद में कार्यकता बुलाए जाते हैं। उसमें कुछ कार्यकर्ता तो भाड़े के भी होते हैं, जो पीठ पर भार लेकर चल रहे नेताओं के धक्का लगाते हैं। इस बार कार्यकर्ता भी थके-मांदे लग रहे हैं। अब जब नेताओं से बोझ संभल नहीं रहा तो गधों को चुनाव में आमंत्रण भेज दिया गया है। ताकि चुनाव का बोझ गधों पर लादा जा सके। क्योंकि दुनिया के किसी भी कोने में गधे से ज्यादा सहनशील प्राणी नहीं पाया जाता।

इतिहास भी गवाह है कि गधों ने आज तक कभी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। न ही कभी उत्पात या आतंक मचाया। वे कभी किसी को कुछ नहीं कहते हैं, जो भी भार उन पर रख दिया जाता है उसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। यही गधों की नियति भी है। गधे तो मानते भी हैं कि उनको बोझ ढोने का काम विरासत में मिला है। वे कई पीढिय़ों से इस काम को बड़ी कुशलता से करते आ रहे हैं। बोझ ढोने में कभी उनका एकछत्र राज भी रहा है। परंतु कमबख्त वाहनों के आ जाने के कारण उनका यह काम थोड़ा सा मंदा हो गया है। जब गधों का जमाना था। तब उनके मालिक उनका पूरा ख्याल रखते ?थे। वाहनों के कारण वे पिछड़ गए। क्योंकि अब जन-जन तक गाड़ी की पहुंच है। गधा मालिक के हुकुम का गुलाम होता था। शहरों में तो गधे दिखाई ही नहीं देते हैं, जैसे गधों की तादाद कम होती जा रही है।

खलखाणी माता व गर्दभ मेले के नाम से विख्यात एशिया के सबसे बड़े गधे मेले में भी अब हर साल घोड़े ही ज्यादा हिनहिनाते हैं। वैसे अब कुत्ते ज्यादा पाले जाते हैं, वे मालिक के वफादार भी माने जाते हैं। हालांकि अलग कहानी भी प्रचलित है जिसमें कुत्ते की जगह गधा वफादारी दिखाता है और इस वफादारी के चंगुल में फंस कर वह मालिक क्रूरता का शिकार होता है और मुफ्त में बेमौत मारा जाता है। इंसान यह कहानी भूल से गए, पर गधे इसे विस्मृत नहीं कर पाए। सो चुनाव में आने से कतरा रहे हैं।

उनमें अभी उनकी प्रकृति विद्यमान है, लेकिन उनके कुछ चाल-चलन व लक्षण मानव प्रकृति में घुलनशील हो गए। लिहाजा, उनकी बिरादरी अपनी सी लगने लगी है। उनको नाकारा समझा जाता है। अगर इनका अस्तित्व का विनाश भी हो जाए तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इन्हें बचाने के लिए कभी पशु प्रेमी भी आगे नहीं आते। कभी आए भी होंगे तो आवाज वन्यजीव संरक्षण जैसी नहीं रही होगी। गधा मामूली टिंगना ही तो रह गया, वरन कद ऊंचा होता तो यह भी घोड़ा बन सकता। आखिर है तो यह भी उन्हीं की फैमिली का। गधे के समान भाव से कभी उसके दुखी या सुनी होने का भी पता नहीं चलता।

गधों पर चुनावी बोझ


रविवार, 19 फ़रवरी 2017

जन्म कुंडली मंत्रालय

हमारे एक मित्र सबको खुश रहने का ज्ञान बांटते फिरते हैं, लेकिन आज वो खुद दुखी हैं। जब भी वो किसी को थोड़ी-सी मुस्कान देते थे तो हम सोचते थे कि इनता जीवन तो सार्थक हो गया। इनको जरूर जन्नत नसीब होगी, पर जन्नत से पहले आज वो नरक क्यों भोगने पर तुले हैं।

पूछा तो कहने लगे, 'या तो हमारी जन्मपत्री ही किसी ने गलत बना दी या फिर राहु-केतु ने घर बसा लिया है, जो खिसकने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।' मैंने कहा, 'हो क्या गया।' मेरी तरफ देखे बिना ही कहा, 'हम जो भी काम करने जाते हैं उसमें विफलता ही मिलती है। अब यह भी कोई बात हुई। हमारी जन्मकुंडली में लिखा है कि हम एक दिन बहुत बड़े आदमी बनेंगे। किसी के रोके से भी नहीं रुकेंगे।' बीच में ही मैंने रोका, 'फिर दिक्कत क्या है।'

उसने कहा, 'रोजाना जन्म कुंडली निकाल कर देखते हैं कि कोई कमी तो नहीं रह गई। या तो यह किसी और की कुंडली थमा दी गई थी या उसे बनानी ही नहीं आती।' मैंने कहा, 'तो फिर से किसी को दिखा लो।' उसने कहा, 'बहुत सो को दिखा दिया। सब एक ही बात बोलते हैं कोई अड़चन नहीं। मुझे तो ज्योतिष शास्त्र पर ही संदेह होने लगा है। कहीं सबको मूर्ख तो नहीं बनाया जा रहा।' मैंने कहा, 'हम एक बहुत बड़े विद्वान पंडित और ज्योतिष शास्त्र के ज्ञानी को जानते हैं।

उसने कहा, 'अब जन्म कुंडली सरकार को ही दिखाएंगे। उनके यहां पर यह काम भी शुरू कर दिया है। मुझे विश्वास है कि उनसे अच्छी जन्मपत्री विश्व जगत में कोई नहीं बांच सकता। वो ही एक ऐसे शख्स हैं, जिनके पास हर बड़े आदमी की जन्मपत्रियां जमा हंै। अब जब हम भी बड़े बनने जा रहे हैं तो सीधे सरकार को ही क्यों नहीं जन्मपत्री दिखा आए। मेरे हिसाब से सरकार को थोड़ी-सी सुविधा और कर देनी चाहिए। अलग से एक जन्म कुंडली मंत्रालय बना देना चाहिए। वैसे तो इसका मंत्री कोई भी बनने को तैयार हो जाएगा, लेकिन हमारी दिली तमन्ना है कि यह मंत्रालय सीधे देश के मुखिया के अधीन रखा जाए। क्योंकि देश में कौन-क्या बनने जा रहा है इसका पता उनको पहले से ही रहेगा। कोई विपदा या आपत्ति आएगी तो वो उसका निवारण भी सरकारी स्तर पर ढूंढ निकालेंगे। देश के प्रत्येक नागरिक से उनका सीधा जुड़ाव भी हो सकेगा। जन्मपत्री पर सरकारी मुहर बहुत सुहाएगी। जैसे दूसरे कागजों पर अपनी शोभा बढ़ती है। अब बस यही आस है कि इस चुनाव में जन्म कुंडली मंत्रालय की घोषणा कर दें। ताकि हम जैसे बहुत से लोगों को राहत मिल जाए। थोड़ी देर पहले शांत स्वभाव से लगने वाले मित्र इस नए मंत्रालय में भर्तियों की बात शुरू करते, उससे पहले ही वहां से मैंने कल्टी मार ली।

जन्म कुंडली मंत्रालय


रविवार, 12 फ़रवरी 2017

रेनकोट पहनना अपराध

चार दिन से मित्र रंगलाल से बार-बार यह पूछ रहा हूं कि रेनकोट पहन कर कैसे नहाया जाता है। चूंकि वह हर काम में अपनी कुशलता दिखाते हैं। हो सकता है यह काम भी उसने करके देखा हो। आखिरी बार जब उससे यह पूछा था तब अनायस ही मित्र रंगलाल के मुंह से मिसाइल की तरह बातें छूटने लगीं।

उसने कहा, रेनकोट पहन कर नहाने से पहले यह इंतजाम पुख्ता कर लेना कि कोई ताक-झांक तो नहीं कर रहा है। अगर ऐसा करते हुए किसी ने देख लिया तो फिर तुम्हारी 'झांकी' बन जाएगी। रेनकोट पहन कर नहा रहे हो यह अच्छी बात है, लेकिन परायों को इसकी भनक भी नहीं लगनी चाहिए। नहीं तो पता है कितनी बदनामी होती है रेनकोट पहन कर नहाने से। मैंने कहा, किसकी शामत आई है, जो मेरे बाथरूम में झांकेगा।

मित्र रंगलाल भी कहां रुकने वाला था उसने अपनी बातों की फायरिंग जारी रखी। तुम्हारे विपक्षी कुछ भी कर सकते हैं। अगर इस बात का रहस्योद्घाटन हो गया तो फिर घर से निकलना भी मुश्किल हो जाएगा, जो आस-पड़ोसी और रिश्तेदार तुम्हारे हितैषी बनते हैं, वह भी हेय दृष्टि से देखने लगेंगे। तुम्हें देखते ही हंसेंगे और। ऐसी बदनामी से तुम्हारा हश्र क्या होगा, जरा सोचो। मैंने कहा, परंतु रेनकोट तो बारिश से बचाव केकाम आता है।

मित्र रंगलाल ने कहा, यह तो आदमी पर निर्भर करता है। उसकी जैसी फितरत होगी वह उसे वैसे ही इस्तेमाल करेगा। फिर वह सोच में डूब गया, जैसे अंतर्मन ध्यान में मग्न हो। फिर मेरी तरफ देखकर कहा, परंतु अब नहाते वक्त रेनकोट पहनने पर 'बैन' लग सकता है। सरकार के रुख से लगता है कि जल्द ही इस पर सरकारी ठप्पा भी लग जाए। इस रोक के बाद भी कोई रेनकोट पहन कर नहाता हुआ पकड़ा गया तो उसकी सजा सरकार सुनिश्चित करेगी। पहला तो उसे सरेआम बदनाम किया जाएगा। हो सकता है अखबारों और टीवी में भी रेनकोट के साथ दोषी की चमचमाती तस्वीर दिखाई जाए। फिर बात का बतंगड़ बनने में कहां देर नहीं लगती। इस तरह की हरकतों को देखने में जनता की रुचि सदियों से रही है।

मैंने कहा, सर्दी में तो फिर भी माना जा सकता है कि ठंडे पानी से बचने के लिए रेनकोट पहना जा सकता है। ताकि सर्दी का अहसास ना हो। मित्र रंगलाल ने कहा, न तो शीतकाल में छूट है, न ही ग्रीष्मकाल में। रेनकोट पहन कर नहाना संगीन जुर्म है। सरकार की नजर में इस जुर्म की सजा क्षमायोग्य नहीं है। मैंने बात आगे बढ़ाना मुनासिब नहीं समझा। परंतु मैं सोच रहा था कि नहाते वक्त रेनकोट पहनना अपराध है या फिर बाथरूम में ताक-झांक करने वाला। जब से रेनकोट की बात उछली है तब से बाजार में रेनकोट की डिमांड बढ़ गई है। हालांकि वर्षा ऋतु दूर है, लेकिन जैसे यह चर्चा छिड़ गई है कि अभी से रेनकोट खरीद लो, बाद में इस पर भारी टैक्स लग सकता है।