सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

गधों पर चुनावी बोझ

चुनाव भी बोझ से कम नहीं हैं और इस बोझ को उठाने का दायित्व नेता बखूबी निभाते हैं। चुनावी दौर बहुत लंबा चलता है, ऐसे में यह भारी भरकम बोझ कई दफा नेताओं से संभल नहीं पाता। इसे संभालने के लिए कोने-कोने से बड़ी तादाद में कार्यकता बुलाए जाते हैं। उसमें कुछ कार्यकर्ता तो भाड़े के भी होते हैं, जो पीठ पर भार लेकर चल रहे नेताओं के धक्का लगाते हैं। इस बार कार्यकर्ता भी थके-मांदे लग रहे हैं। अब जब नेताओं से बोझ संभल नहीं रहा तो गधों को चुनाव में आमंत्रण भेज दिया गया है। ताकि चुनाव का बोझ गधों पर लादा जा सके। क्योंकि दुनिया के किसी भी कोने में गधे से ज्यादा सहनशील प्राणी नहीं पाया जाता।

इतिहास भी गवाह है कि गधों ने आज तक कभी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। न ही कभी उत्पात या आतंक मचाया। वे कभी किसी को कुछ नहीं कहते हैं, जो भी भार उन पर रख दिया जाता है उसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। यही गधों की नियति भी है। गधे तो मानते भी हैं कि उनको बोझ ढोने का काम विरासत में मिला है। वे कई पीढिय़ों से इस काम को बड़ी कुशलता से करते आ रहे हैं। बोझ ढोने में कभी उनका एकछत्र राज भी रहा है। परंतु कमबख्त वाहनों के आ जाने के कारण उनका यह काम थोड़ा सा मंदा हो गया है। जब गधों का जमाना था। तब उनके मालिक उनका पूरा ख्याल रखते ?थे। वाहनों के कारण वे पिछड़ गए। क्योंकि अब जन-जन तक गाड़ी की पहुंच है। गधा मालिक के हुकुम का गुलाम होता था। शहरों में तो गधे दिखाई ही नहीं देते हैं, जैसे गधों की तादाद कम होती जा रही है।

खलखाणी माता व गर्दभ मेले के नाम से विख्यात एशिया के सबसे बड़े गधे मेले में भी अब हर साल घोड़े ही ज्यादा हिनहिनाते हैं। वैसे अब कुत्ते ज्यादा पाले जाते हैं, वे मालिक के वफादार भी माने जाते हैं। हालांकि अलग कहानी भी प्रचलित है जिसमें कुत्ते की जगह गधा वफादारी दिखाता है और इस वफादारी के चंगुल में फंस कर वह मालिक क्रूरता का शिकार होता है और मुफ्त में बेमौत मारा जाता है। इंसान यह कहानी भूल से गए, पर गधे इसे विस्मृत नहीं कर पाए। सो चुनाव में आने से कतरा रहे हैं।

उनमें अभी उनकी प्रकृति विद्यमान है, लेकिन उनके कुछ चाल-चलन व लक्षण मानव प्रकृति में घुलनशील हो गए। लिहाजा, उनकी बिरादरी अपनी सी लगने लगी है। उनको नाकारा समझा जाता है। अगर इनका अस्तित्व का विनाश भी हो जाए तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इन्हें बचाने के लिए कभी पशु प्रेमी भी आगे नहीं आते। कभी आए भी होंगे तो आवाज वन्यजीव संरक्षण जैसी नहीं रही होगी। गधा मामूली टिंगना ही तो रह गया, वरन कद ऊंचा होता तो यह भी घोड़ा बन सकता। आखिर है तो यह भी उन्हीं की फैमिली का। गधे के समान भाव से कभी उसके दुखी या सुनी होने का भी पता नहीं चलता।

गधों पर चुनावी बोझ


रविवार, 19 फ़रवरी 2017

जन्म कुंडली मंत्रालय

हमारे एक मित्र सबको खुश रहने का ज्ञान बांटते फिरते हैं, लेकिन आज वो खुद दुखी हैं। जब भी वो किसी को थोड़ी-सी मुस्कान देते थे तो हम सोचते थे कि इनता जीवन तो सार्थक हो गया। इनको जरूर जन्नत नसीब होगी, पर जन्नत से पहले आज वो नरक क्यों भोगने पर तुले हैं।

पूछा तो कहने लगे, 'या तो हमारी जन्मपत्री ही किसी ने गलत बना दी या फिर राहु-केतु ने घर बसा लिया है, जो खिसकने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।' मैंने कहा, 'हो क्या गया।' मेरी तरफ देखे बिना ही कहा, 'हम जो भी काम करने जाते हैं उसमें विफलता ही मिलती है। अब यह भी कोई बात हुई। हमारी जन्मकुंडली में लिखा है कि हम एक दिन बहुत बड़े आदमी बनेंगे। किसी के रोके से भी नहीं रुकेंगे।' बीच में ही मैंने रोका, 'फिर दिक्कत क्या है।'

उसने कहा, 'रोजाना जन्म कुंडली निकाल कर देखते हैं कि कोई कमी तो नहीं रह गई। या तो यह किसी और की कुंडली थमा दी गई थी या उसे बनानी ही नहीं आती।' मैंने कहा, 'तो फिर से किसी को दिखा लो।' उसने कहा, 'बहुत सो को दिखा दिया। सब एक ही बात बोलते हैं कोई अड़चन नहीं। मुझे तो ज्योतिष शास्त्र पर ही संदेह होने लगा है। कहीं सबको मूर्ख तो नहीं बनाया जा रहा।' मैंने कहा, 'हम एक बहुत बड़े विद्वान पंडित और ज्योतिष शास्त्र के ज्ञानी को जानते हैं।

उसने कहा, 'अब जन्म कुंडली सरकार को ही दिखाएंगे। उनके यहां पर यह काम भी शुरू कर दिया है। मुझे विश्वास है कि उनसे अच्छी जन्मपत्री विश्व जगत में कोई नहीं बांच सकता। वो ही एक ऐसे शख्स हैं, जिनके पास हर बड़े आदमी की जन्मपत्रियां जमा हंै। अब जब हम भी बड़े बनने जा रहे हैं तो सीधे सरकार को ही क्यों नहीं जन्मपत्री दिखा आए। मेरे हिसाब से सरकार को थोड़ी-सी सुविधा और कर देनी चाहिए। अलग से एक जन्म कुंडली मंत्रालय बना देना चाहिए। वैसे तो इसका मंत्री कोई भी बनने को तैयार हो जाएगा, लेकिन हमारी दिली तमन्ना है कि यह मंत्रालय सीधे देश के मुखिया के अधीन रखा जाए। क्योंकि देश में कौन-क्या बनने जा रहा है इसका पता उनको पहले से ही रहेगा। कोई विपदा या आपत्ति आएगी तो वो उसका निवारण भी सरकारी स्तर पर ढूंढ निकालेंगे। देश के प्रत्येक नागरिक से उनका सीधा जुड़ाव भी हो सकेगा। जन्मपत्री पर सरकारी मुहर बहुत सुहाएगी। जैसे दूसरे कागजों पर अपनी शोभा बढ़ती है। अब बस यही आस है कि इस चुनाव में जन्म कुंडली मंत्रालय की घोषणा कर दें। ताकि हम जैसे बहुत से लोगों को राहत मिल जाए। थोड़ी देर पहले शांत स्वभाव से लगने वाले मित्र इस नए मंत्रालय में भर्तियों की बात शुरू करते, उससे पहले ही वहां से मैंने कल्टी मार ली।

जन्म कुंडली मंत्रालय


रविवार, 12 फ़रवरी 2017

रेनकोट पहनना अपराध

चार दिन से मित्र रंगलाल से बार-बार यह पूछ रहा हूं कि रेनकोट पहन कर कैसे नहाया जाता है। चूंकि वह हर काम में अपनी कुशलता दिखाते हैं। हो सकता है यह काम भी उसने करके देखा हो। आखिरी बार जब उससे यह पूछा था तब अनायस ही मित्र रंगलाल के मुंह से मिसाइल की तरह बातें छूटने लगीं।

उसने कहा, रेनकोट पहन कर नहाने से पहले यह इंतजाम पुख्ता कर लेना कि कोई ताक-झांक तो नहीं कर रहा है। अगर ऐसा करते हुए किसी ने देख लिया तो फिर तुम्हारी 'झांकी' बन जाएगी। रेनकोट पहन कर नहा रहे हो यह अच्छी बात है, लेकिन परायों को इसकी भनक भी नहीं लगनी चाहिए। नहीं तो पता है कितनी बदनामी होती है रेनकोट पहन कर नहाने से। मैंने कहा, किसकी शामत आई है, जो मेरे बाथरूम में झांकेगा।

मित्र रंगलाल भी कहां रुकने वाला था उसने अपनी बातों की फायरिंग जारी रखी। तुम्हारे विपक्षी कुछ भी कर सकते हैं। अगर इस बात का रहस्योद्घाटन हो गया तो फिर घर से निकलना भी मुश्किल हो जाएगा, जो आस-पड़ोसी और रिश्तेदार तुम्हारे हितैषी बनते हैं, वह भी हेय दृष्टि से देखने लगेंगे। तुम्हें देखते ही हंसेंगे और। ऐसी बदनामी से तुम्हारा हश्र क्या होगा, जरा सोचो। मैंने कहा, परंतु रेनकोट तो बारिश से बचाव केकाम आता है।

मित्र रंगलाल ने कहा, यह तो आदमी पर निर्भर करता है। उसकी जैसी फितरत होगी वह उसे वैसे ही इस्तेमाल करेगा। फिर वह सोच में डूब गया, जैसे अंतर्मन ध्यान में मग्न हो। फिर मेरी तरफ देखकर कहा, परंतु अब नहाते वक्त रेनकोट पहनने पर 'बैन' लग सकता है। सरकार के रुख से लगता है कि जल्द ही इस पर सरकारी ठप्पा भी लग जाए। इस रोक के बाद भी कोई रेनकोट पहन कर नहाता हुआ पकड़ा गया तो उसकी सजा सरकार सुनिश्चित करेगी। पहला तो उसे सरेआम बदनाम किया जाएगा। हो सकता है अखबारों और टीवी में भी रेनकोट के साथ दोषी की चमचमाती तस्वीर दिखाई जाए। फिर बात का बतंगड़ बनने में कहां देर नहीं लगती। इस तरह की हरकतों को देखने में जनता की रुचि सदियों से रही है।

मैंने कहा, सर्दी में तो फिर भी माना जा सकता है कि ठंडे पानी से बचने के लिए रेनकोट पहना जा सकता है। ताकि सर्दी का अहसास ना हो। मित्र रंगलाल ने कहा, न तो शीतकाल में छूट है, न ही ग्रीष्मकाल में। रेनकोट पहन कर नहाना संगीन जुर्म है। सरकार की नजर में इस जुर्म की सजा क्षमायोग्य नहीं है। मैंने बात आगे बढ़ाना मुनासिब नहीं समझा। परंतु मैं सोच रहा था कि नहाते वक्त रेनकोट पहनना अपराध है या फिर बाथरूम में ताक-झांक करने वाला। जब से रेनकोट की बात उछली है तब से बाजार में रेनकोट की डिमांड बढ़ गई है। हालांकि वर्षा ऋतु दूर है, लेकिन जैसे यह चर्चा छिड़ गई है कि अभी से रेनकोट खरीद लो, बाद में इस पर भारी टैक्स लग सकता है। 

रेनकोट पहनना अपराध


गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017

चुनावी चुग्गा, भरमाया मन

चुग्गा स्थल तो देखा ही होगा। जहां पक्षी पेट की आग शांत करने के लिए चुग्गे की तलाश में आते हैं। ऐसे ही एक 'चुनावी चुग्गा' भी होता है। यहां 'चुनाव' ऐसा 'चुग्गा स्थल' है, जहां पर मतदाता को पक्षी समझा जाता है और माननीय नेताजी को चुग्गा डालने वाला। जिस तरफ से सबसे अधिक चुग्गा उछाला जाता है उस तरफ अधिकतर मतदाता एक डोर में बंध कर खिंचे चले जाते हैं। 

जैसे चिडिय़ाओं और कबूतरों को चुग्गा डाल कर मन पुलकित हो उठता है, वैसे ही चुनावी रणक्षेत्र रूपी 'चुग्गा स्थल' पर 'निरीह पक्षी' बने मतदाता की तरफ नेताजी चुग्गा डालते हैं। पक्षी की भांति चुग्गा पाकर मतदाता भी प्रसन्न हों, इसकी कोई गारंटी नहीं, लेकिन नेताजी के चेहरा खिलखिला उठाता है। पर उसे भी संशय उत्पन्न हो जाता है कि कहीं विपक्ष की ओर से ज्यादा मात्रा में चुग्गा न फेंक दिया जाए। कई दफा इसी चुग्गे से मतदाता का पुराना दर्द भी सिहर उठता है। मतदाता को हर तरह के चुग्गे की अपेक्षा रहती है। 

इस बीच कुछ ऐसे भी चुग्गेबाज आ जाते हैं, जो हाथ हिलाकर चुग्गा डालने का बखूबी अभिनय करने लगते हैं। तब मतदाता भ्रमित हो जाते हैं। मतदाता इंतजार में रहते हैं कि अब फेंकेगा चुग्गा कि कब फेंकेगा। ताकि वह उसे तीव्रता से लपक ले। सरकार बनने के बाद इस चुग्गे पर पहरा बैठा दिया जाता है। कई बार यह पांच साल तक कैद रहता है, लेकिन चुग्गा बाहर नहीं निकाला जाता। तब जैसे-तैसे चुग्गा बीन-बीन कर काम चलाना पड़ता है, ठीक पक्षियों की तरह। कुछ अप्रत्याशित चुग्गा भी होता है, जिससे मतदाता को जाल में फंसाया जाता है। यह अक्सर नुकसानदायक  होते हैं। कई दफा चुग्गा डालने वालों से उनको खतरा भी रहता है फिर भी पूरी हिम्मत केचुग्गा स्थल पर डटे रहते हैं। यही तो उनका काम है। इस चुग्गे पर मतदाता से ज्यादा औरों की गिद्ध दृष्टि रहती है। जैसे ही सरकार की काल कोठरी से यह चुग्गा निकाला जाता है तो बीच रास्ते में ही उसके लुटने का डर रहता है। बड़ी मात्रा में लुट भी जाता है। 

यह पहले से ही निर्धारित रहता है कि कितना चुग्गा किस तरफ सप्लाई किया जाएगा। उसमें से कुछ तो अपनी व्यक्तिगत संपत्ति या अपना अधिकार मानकर नेताजी अपनी तरफ खींच लेते हैं और कुछ सरकारी कारिंदे अपने हिस्से का चुग्गा लेकर उड़ जाते हैं। जो कुछ बचता है वह मतदाता की तरफ रवाना कर दिया जाता है। तब मतदाता अपना काम-धंधा छोड़कर इसकी प्राप्ति के लिए विशेष प्रयत्न करना शुरू कर देता है। इस बार प्रेशर कूकर, लैपटॉप, स्मार्टफोन, घी, चीनी, आदि चुग्गों के नाम गिना लुभाने के प्रयास किए जा रहे हैं। इन चुग्गों के नाम सुन कर हर किसी का मन भरमाया हुआ है। 

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

चुनावी सिंबलों की वार्षिक गुप्त बैठक

राजनीतिक दलों के सिंबलों की वार्षिक गुप्त बैठक चल रही थी। हाथी ने सबसे पहले संबोधन दिया। हाथी बोला-अपनी बिरादरी में रह कर कितना सुकून था। यही बोल कमल, साइकिल, लालटेन, पंजा, ताला-कूंची, छाता वगैहर-वगैहर के मुख से भी फूट रहे थे।

सब एक-दूसरे से बड़े प्यार और स्नेह से अपना दुख-दर्द बयां कर रहे थे। कह रहे थे कि नेता लोग षडय़ंत्र पूर्वक हमें राजनीति में घसीट लाए। हम हर बार इनके चंगुल से निकलने के लिए छटपटाते हैं। लेकिन इन्होंने हमें इस कदर बंदी बना रखा है कि हम इतनी कोशिश के बाद भी इनका जाल नहीं काट पा रहे हैं। सब एक-दूसरे दयनीय से सहानुभूति जता रहे हैं। कई सिंबल सुबक पड़े तो उसे सबने मिलकर सांत्वना दी। तब ही कमल ने कहा-भाई हाथी तुम तो इतने बलशाली हो फिर भी तुम निकलने में असमर्थ हो। फिर हमारी तो बिसात ही क्या? हाथी ने कहा-राजनीति गलियारों की बनावट बहुत टेढ़ी और संकरे कर दिए गए हैं, अन्यथा यहां से कब का फरार हो जाता।

कमल ने कहा-जैसे जेल से कैदी आएदिन भागते हैं, वैसे। हाथी ने कहा-ऐसा ही समझो मेरे भाई कमल। तुम क्यों दुखी हो झाड़ू तुम्हारे आका तो भले मानुष बताए जाते हैं। फिर तुम क्यों दुखी हो। झाड़ू ने कहा-अच्छे इंसान से क्या होता है। मैं खुद सजा पा रहा हूं। घरों में सफाई करके ही खुश था। यहां तो आएदिन अपमान का घूंट पीना पड़ रहा है। मतदाता भी हमारी अच्छाई समझकर हमें वोट देते हैं, लेकिन वो भी ठगे जाते हैं जीत के बाद। और गालियां हमें पड़ती है। लालटेन ने चहकते हुए कहा-हम सब इस राजनीतिक मांद से भाग तो सकते हैं साइकिल पर बैठ कर। तब ही साइकिल हांफने लगी। उसके बोल फट पड़े-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। तुम सबका बोझ तो मैं झेल सकता हूं, पर हाथी का नहीं। मेरा तो अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।

कमल बोला-देखो भाई, हम में से एक भी यहां छूट गया तो यह हमें फिर से इस नर्क कुंड में झोंकने के लिए पकड़ लाएंगे। इसलिए एकता से काम लेना पड़ेगा। क्योंकि संगठन में ही शक्ति है। चलो, यहां से भागने की योजना बनाते हैं। साइकिल ने कहा-कमल मैं तुम्हारे कुनबे में पल रहे नेताओं की रग-रग से वाकिफ हूं। तुम भी उनके साथ रह कर वैसे ही बन गए हो। तुम भी कूटरचित नीति अपना रहे हो। कमल ने कहा-तुम इसलिए बोल रहे हो ना कि तुम्हारी पंजे से फिर दोस्ती हो गई है। लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि फिर से तुम एक-दूसरे से नाराज नहीं होंगे।

पंजे ने कहा-कमल तुमने जरूर कोई योजना बना रखी है हमें परलोक सिधारने की और खुद के बच निकलने की। तुम बच गए तो फिर तुम्ही को शासन करना है। आरोप-प्रत्यारोप के बीच वही हुआ, जो हर साल बैठक में होता है। हाथी को गुस्सा आ गया और वह ऐसा पगला गया कि सबको बैठक छोड़कर भागना पड़ता। 

रविवार, 5 फ़रवरी 2017

चुनावी माहौल घी में तर

चुनाव में घी का दांव खेला गया है। यह वही घी है, जिसकी सुगंध भी गरीब किस्म या इस रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों को मयस्सर नहीं। ऐसे घी से बेहतर खाद्य उत्पाद और कोई हो ही नहीं सकता था। उत्तर प्रदेश के चुनावी घोषणा-पत्र देख लें या पंजाब के, घी ने प्रमुखता से अपनी जगह बना ली है। सभी पार्टियों का उद्देश्य इस बार जनता को जीभर कर घी का सेवन कराना है। यानी सरकार किसी भी पार्टी की बने, जनता को घी खिलाने पर फोकस रहेगा।

अब इसमें से जनता के हिस्से में कितना घी आएगा और नेताओं के हिस्से में कितना, यह तो सरकार का ही जिम्मा रहेगा। चूंकि बंदरबांट और कुंडली मार के बैठने की प्रणाली से पहले 'राशन' की दुर्दशा हो गई है, वही सलूक घी के साथ ही भी होने की प्रबल संभावना है। घी, जिसका नाम अक्सर गरीब और बीपीएल धारक यदा-कदा सुनते रहते हैं। वे खुश नजर आ रहे हैं कि अब नेता उनकी भी सुध लेने लगी है, घी के नाम पर। वे भी नेताओं की तरह हष्ट-पुष्ट होने के कगार पर पहुंच जाएंगे। घी नहीं खाने से अब तक उनका भीतरी शारीरिक ढांचा स्पष्ट दिख जाता है। जमाने के फ्लैशबैक में जाए तो पाएंगे कि घी पर पहले संपन्न परिवारों का ही एकाधिकार हुआ करता था। मध्यम वर्गीय परिवार में भी कुछेक घरों में घी पाया जाता था, जिसे वो छिपा कर रखते थे। परंतु कुपोषितों के लिए घी आज भी एक 'दुर्लभ' बना हुआ है।

अब मध्यम वर्गीय परिवार की पहुंच भी घी तक हो गई है, तो संपन्न परिवार के लोग उच्च ब्रांड का घी खाने में विश्वास रखते हैं। ताकि उनकी मांसपेशियों में चिकनाई घुलती रहे और काम करने के लिए शरीर सरलता से हिल-ढुल सके। मध्यम वर्गीय लोग खुश हैं कि अब कड़ी मेहनत की कमाई से वह भी घी चुपड़ी रोटी का लुत्फ उठा सकते हैं। वरना, सप्ताह में एक बार ही रोटी पर घी मचते थे, वह भी दिखावा मात्र।

आज कोई घी दूध में मिलाकर पीता है तो कोई घी के लड्डू खाता है। पर ज्यादा घी भी पाचन तंत्र ढीला कर देता है। यह बात बेचारे गरीब क्या जाने। जब से घोषणा-पत्रों में घी किसी जंग-सा अहसास करा रहा है। चारों तरफ घी भर-भर कर फेंका जा रहा है और संपूर्ण सृष्टि घी तरबतर हो गई है। जिसकी तरफ से ज्यादा घी उछाला गया है, वही विजेता। कुछ लोग रिसर्च कर खोज कर रहे हैं कि दुनिया में सर्वप्रथम किसने घी का स्वाद चखा था और कैसा महसूस किया था। अब संशय नहीं कि भविष्य में घी बड़ा मसला बनने वाला है।

मीडिया में भी सुर्खियां होंगी। क्योंकि घी में घोटले, अनियमितता और गड़बड़ी करना ज्यादा अच्छा माना जाएगा, वनिस्पत अन्य योजना के। गरीब तबका पहले भी घी के बिना रहना जानता था और आज भी। घी का दांव आने वाले समय में हर राज्य में दिखेगा। यानी देश में हर जगह घी के भंडार होंगे, जिसकी सुगंध मात्र गरीब तक पहुंचेगी।

शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

साजिश से फटा 'कुर्ता'

कुर्ता और चरखे का सदियों पुराना रिश्ता है। जब भी चरखे की बात शुरू होती है तो कुर्ता खुद-ब-खुद चर्चा में आ जाता है। अन्यथा युवराज का फटा कुर्ता जग जाहिर होने से पहले चरखा सुर्खियां नहीं बंटोरता। आखिर फटा कुर्ता पहनना कहां की मजबूरी हो सकती है। क्या वे हमेशा फटा कुर्ता ही पहनते हैं या उनके सारे ही कुर्ते फटेहाल में हैं। अगर एक ही कुर्ता फटा हुआ है तो वह कैसे फटा। मुद्दा तो यही होना चाहिए था, लेकिन इसकी मूल जड़ तलाशने की बजाय इस पर से ध्यान भटकाया गया। क्योंकि अब धीरे-धीरे यह तथ्य सामने आ रहा है कि जिस दिन फटा कुर्ता भारी भीड़ के बीच उजागर हुआ था वह धूल-धूसरित चरखे के सूत से बना था।

यह चरखा भी फटेहाल कुर्ते के कुछ ही दिन पहले चला था। यह अधमरा-सा चरखा चलाया था देश के सबसे शक्तिशाली शख्स ने। जो स्वयं तो विशेष अवसरों पर सूटबूट पहनते हैं, लेकिन खादी के प्रचारक बनते हैं। वैसे तो चरखा चलाना भी एक विशेष अवसर था, पर पोज देने के चक्कर में शायद सूटबूट पहनना भूल गए थे। वे पहले ही जानते थे कि इस चरखे से जो सूत निकलेगा, उससे युवराज का कुर्ता बनेगा। मौके की नजाकत को देखकर ऐसा सूत काता गया, जिससे देश की जनता के बीच युवराज की दीनता का रहस्य उजागर हो गया। एकदम से जब चरखे की चर्चा होने लगी तब युवराज को यह पता चल गया कि जानबूझ कर उनके लिए ऐसा सूत काता गया ताकि कुर्ता फट जाए और उनकी हालत देखकर जग हंसाई हो और हुई भी।

सचमुच कुर्ते का यह सूत जल्दबाजी में काता हुआ प्रतीत होता है। मंच से युवराज कहना भी यही चाहते थे कि उनका कुर्ता बनाने के पीछे बहुत बड़ी साजिश रची गई है। इसमें सत्तापक्ष का हाथ है। वरना, खादी का कुर्ता तो उनके परिवार की पहचान रहा है। साथ ही कुर्ता पहनते ही साधारण आदमी भी नेता की इमेज में नजर आता है। परंतु जनता युवराज भी भावना को सही से नहीं समझ पाई। परंतु जो लोग चतुराई को पालते हैं वे समझ गए और खोजबीन करने में लग गए कि चरखा और कुर्ते की एक साथ चर्चा क्यों होने लगी है। तथ्य कुछ ऐसे ही निकल कर सामने आ रहे हैं। कुछ तथ्य और भी हैं जो समय के गर्भ में छिपे बैठे हैं। यह भी पता चलेगा कि युवराज के और कितने कुर्ते फटे हुए हैं। खादी भंडार वाले खुश है कि फिर से खादी के अच्छे दिन लौट कर आ रहे हैं। वह तो यही चाहते हैं कि देश-दुनिया में जितने भी लोग उनके कुर्ते पहनते हैं वह सभी फट जाए, जिससे फटेहाल में पहुंच चुकी खादी में सुधार आ जाए। 

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

सुंदरता से दिलचस्प चुनाव

नारी सुंदरता देख आंखें फडफ़ड़ाना बंद कर देती हैं तो कान मधुर धुन सुनने के आदी हो जाते हैं। किसी को सुंदर कहना गलत नहीं है, लेकिन एक की सुंदरता की तुलना दूसरे की सुंदरता से करना, एक तरह से सुंदरता का उपहास समझा जाता है। चूंकि सुंदरता कुदरत की देन है। इसमें हस्तक्षेप करना कोई भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। इस सुंदरता का फायदा चुनाव में भी उठाया जा रहा है।
जब से चुनाव में सुंदरता की 'एंट्री' हुई है, तब से इसे हर कोई प्रोत्साहित करने को आतुर है। मतदाता को आकर्षित करने के लिए स्टार प्रचारक बुलाए जाते हैं। अगर स्टार प्रचारक सुंदर स्त्री हैं तो भीड़ का जवाब नहीं। उसे सुनने कम, मगर निहारने के लिहाज से बेशक आते हैं, जैसे वह अपना सारा काम छोड़कर उन्हीं से मिलने आ रही हैं। वो मतदाताओं की तरफ   हाथ हिला कर अभिनंदन करती है तो 'दिल परदेशी' हो जाता है। इस बार चुनाव में सुंदर-सुंदर स्टार प्रचारकों के आने के संभावना ज्यादा बढ़ गई है। जनता दिल थामे हुए है कि वो उनके पास कब आएंगी। जैसे उनको पांच साल से उसी की प्रतीक्षा थी। अब की बार तो उत्सुकता भी महंगाई की तरह बढ़ गई है और यह उत्सुकता एक पक्ष के नेता ने यह कह कर और बढ़ा दी कि विपक्ष से सुंदर स्टार प्रचारक उनके पास हैं।
सुंदरता के इस मुकाबले में कौन बाजी मारता है इसका जवाब तो जनता ईवीएम का बटन दबा कर ही देगी। पर विपक्ष को यह बात नहीं पच रही। उनको यह बात अपने सुंदर स्टार प्रचारक की भत्र्सना के समान लग रही है। वह भी इस बात को साबित करने में लग गए कि उनकी स्टार प्रचारक से सुंदर कोई नहीं है। नेतागण मानते हैं कि सुंदर स्टार प्रचारक ही उनकी वैतरणी पार लगाते हैं, काम-वाम से कुछ नहीं होता। जनता के बीच सुंदर चेहरे को उतार दें तो सब उसके पीछे-पीछे हो लेते हैं। कई दफा तो हीरोइन को भी ले आते हैं तब तो जनता बावली ही हो जाती है। सुंदरता के कारण चुनावी मुकाबला रोचक बनता जा रहा है। यह भी सुना गया है कि इस बार पिछले चुनाव के सुंदरता का रिकॉर्ड ध्वस्त हो जाएंगे। अभी सूची में एक से बढ़कर एक सुंदर स्टार प्रचारक शामिल किए जा रहे हैं। इसमें किसी तरह की कमी न रह जाए इसलिए रात-रात भर मीटिंगें हो रही हैं। फोन पर भी वरिष्ठ नेतागण आपस में विचार-विमर्श कर रहे हैं। वैसे भी मन की सुंदरता अक्सर तन की सुंदरता के बोझ तले दब जाती है। मन की सुंदरता का ढोल पीटा जाता है, लेकिन अधिकतर तन की सुंदरता को ही प्राथमिकता देते हैं। 

परिवारवाद नहीं राष्ट्रहित कहो

परिवारवाद या वंशवाद राजनीति में एक कल्याणकारी योजना है, जो सीधे-सपाट ढंग से नेताओं से जुड़ी है। अघोषित तौर पर लागू इस योजना का उद्देश्य नेता और उनके परिवारजनों का कल्याण और विकास करना है। नेतागण इसे राष्ट्रहित से जोड़कर देखते हैं, क्योंकि 'राष्ट्रहित' उनके लिए 'सर्वोपरि' है।
परिवारवाद की जड़ को पांच साल में एक बार सींचा जाता है और इस मौके का फायदा वो खुद ही उठाते हैं। इसके लिए वे पूरा जोर भी लगा देते हैं। जमीन से जुड़ा कोई कार्यकर्ता टिकट के लिए अडंग़ा लगाने का साहसपूर्वक प्रयत्न करता है, तो नेतागण उसे एक टुच्चा-सा कार्यकर्ता साबित करके ही दम लेते हैं। क्योंकि नेतागण मानते हैं, उस टिकट पर पहले उसकी फैमिली मेम्बर का अधिकार है और इस अधिकार को कोई दूसरा नहीं छीन सकता। किसी कार्यकर्ता से ज्यादा जमीन से जुड़ा हुआ नेतागण खुद को बताते हैं। परिवादवाद के चक्रव्यूह में फंस कर कई पार्टियां तो फैमिली पार्टी बन गई हैं, जैसे यूपी में बाप-बेटे की पार्टी और बिहार में लालू एंड पार्टी। उनकी पार्टी में पहले ही तय रहता है कि कौन से से वारिस की उम्र चुनाव में डटकर मुकाबला करने की हो रही है। इनके यहां चुनाव में बापू खड़े होते हैं तो बिटवा और बहू भी। यानी, राजनीति में कुछ फैमिलीज ऐसी बन चुकी हैं, जहां ज्योतिषी को कहने की जरूरत नहीं पड़ती कि नवजात बड़ा होकर क्या बनेगा।
परिवादवाद की इस जड़ को काटना तो असंभव लगता है। किसी ने बलपूर्वक प्रयत्न भी किया तो खुद ही टूट जाएंगे। औरों की देखम-देख दूसरे नेतागण भी अपने फैमिली मेम्बरों को राजनीति में सेट करने में लगे हैं। यूपी चुनाव में तो ऐसे नेताओं का आंकड़ा चालीस फीसदी पहुंच गया है। बायोडेटा में नेतागण अपना रेफरेंस देना नहीं भूलते, वह भी बोल्ड और कैपिटल अक्षरों में। इस तरह के दबाव में आकर पार्टी उनकी उम्मीदवारी पर गहनता से विचार करती हैं। पार्टी को विकल्प भी दिया जा रहा है कि बेटा नहीं तो बेटी को ही फिट कर दो। पर होगा फैमिली मेम्बर ही, दिन-रात एडिय़ा रगडऩे वाला कार्यकर्ता नहीं। अधिकतर नेतागण मिलकर योजनाबद्ध तरीके से वंशवाद की बेल को बढ़ाने में अपना संपूर्ण योगदान दे रहे हैं, उन्हें किसी की भी चिंता नहीं। राजनीतिक पार्टियां मानती हैं कि पारिवारवाद को रोका गया तो नेतागण बागी हो जाएंगे। उनकी बगावत से पार्टी को हानि होगी, जो राष्ट्रहित में यह नुकसानदेह होगा। नेतागण राष्ट्रहित के बारे में इतना सोच रहे हैं फिर भी हम उन्हीं को कोस रहे हैं।

साइकिल प्रेम

शहरों में कितनी ही रफ्तार से मोटर गाडिय़ां चलती हों, पर आज इन तेज दौड़ते भांति-भांति के वाहनों के बीच साइकिलें दिख जाती हैं। हर साल महंगे से महंगे वाहनों की डिमांड बढ़ रही हो, लेकिन अभी साइकिल के दीवानों की कमी नहीं है। साइकिल चलाने का भी कुछ अपना मजा है। सड़क पर कितना ही जाम लगा हो, लेकिन साइकिल चलाने में कुशलता रखने वाले लोग उसे जैसे-तैसे करके निकाल ही लेते हैं और बड़े-बड़े वाहनों के मालिक देखते ही रह जाते हैं। साइकिल दीवाने अक्सर शॉर्ट कट रास्ता अपनाते हैं ताकि गंतव्य पर जल्द से जल्द पहुंचा जा सके और पहुंच भी जाते हैं।
छोटी-छोटी और तंग गलियों से साइकिल को इतने सलीके से निकालते हैं, जैसे उससे अच्छा दुनिया में कोई दूसरा आवागमन का साधन है ही नहीं। बस सबको छकाते हुए आगे निकल जाती है। तब साइकिल सवार पलट कर एक बार जरूर देखता है पीछे रह जाने वालों की शक्ल। साथ ही यह हर मौसम में अनुकूल रहती है। गर्मी में ठंडी हवा लगती है तो सर्दी में पेडल मारने पर शारीरिक ऊर्जा निकलने से शरीर में गर्मी बनी रहती है। बारिश के मौसम में भी सड़कों पर पानी भरने के बाद सरलता से उसे निकाल लिया जाता है। बारिश के मौसम में तो साइकिल चलाने का आनंद ही अलग होता है। हर साल नए-नए और लग्जरी वाहन आ रहे हैं, लेकिन साइकिल ने आज भी अपना महत्व कायम कर रखा है। बच्चों में तो आज भी साइकिल जा जबर्दस्त क्रेज बना हुआ है। बच्चे जब थोड़े-से बड़े होते हैं तो उनकी पहली डिमांड ही साइकिल की होती है। माता-पिता भी उसे कभी मना नहीं करते हैं। या तो उसे नई साइकिल खरीद कर दे देते हैं या फिर वह खुद ही किराये से साइकिल लेकर चलाने लगता है। आज भी देश-विदेश में साइक्लिंग प्रतियोगिताएं होती हैं। जो लोग साइकिल चलाने के दीवाने हैं उनके लिए तो साइकिल ही बाइक है और साइकिल ही कार। आज तो सरकार भी इस पर जोर दे रही है। इसीलिए तो स्कूली छात्राओं को साइकिलें दी जा रही हैं। साइकिल में एक यह भी फायदा है कि इसे चलाने के लिए पेट्रोल-डीजल की भी जरूरत नहीं रहती। कुछ तो बात है इस साइकिल में। वरना यूं ही यूपी के पिता- पुत्र साइकिल के लिए नहीं लड़ते। साइकिल की लड़ाई लखनऊ से दिल्ली तक पहुंच गई। दोनों ही साइकिल को अपनी अपनी बताने में लगे हैं। कभी उसी साइकिल पर दोनों आगे-पीछे बैठकर पूरे प्रदेश में घूमा करते थे, लेकिन अब दोनों ही साइकिल से एक-दूसरे को पटकना चाहते हैं। जबकि साइकिल पर दोनों आराम से सवार हो सकते हैं। अब जिस साइकिल का चालान तक का नियम नहीं है, उसी के जब्त होने का खतरा है। 

अंगूठे का सम्मान

भीम नामक मोबाइल एप के कारण अंगूठे ने एक बार सबका ध्यान अपनी तरफ  खींचा है। क्योंकि समाज भले ही अंगूठे को दुत्कारता रहा हो, लेकिन सरकार निरंतर इसे बढ़ावा दे रही है। मसलन, ज्यादा पढ़-लिख लेनेवाले लोग अनपढ़ और कम पढ़े- लिखे वालों को अंगूठा छाप मानते हैं। कई बार उनकी उलाहना भी कर देते हैं। ऐसा करना तो जैसे वो अपना अधिकार मान लेते हैं। माना आज के जमाने में पढऩा-लिखना बेहद जरूरी है। लेकिन अंगूठा छाप कहने से क्या अंगूठा बुरा नहीं मानता। पढ़-लिखकर लोग यह मान लेते हैं कि 'चलो अब इस अंगूठे से तो छुटकारा मिला।'

लेकिन सरकार समय-समय पर जिस तरह से अंगूठे को मान-सम्मान देती रहती है उससे नहीं लगता कि अंगूठे से कभी पीछा छूटेगा। सरकार में पूछ बढऩे से अंगूठा फिर से इतरा रहा है। इतराए भी क्यों नहीं। क्योंकि यह अंगूठा है ही इतने काम का। शायद लोग यह भूल जाते हैं कि अंगूठा सदियों से सर्वमान्य और सर्वोपरि रहा है। महाभारत काल को ही ले लो, जब गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरु दक्षिणा में अंगूठा मांग लिया था ताकि अर्जुन से बड़ा कोई दूसरा धनुर्धारी ना हो सके। यानी अंगूठे की महत्ता को कभी किसी ने कम नहीं आंका। आज तो पहले की तुलना में अंगूठे की डिमांड ज्यादा बढ़ गई है। क्योंकि हम भले ही आधुनिक काल में जी रहे हैं, लेकिन मोबाइल चलाने के लिए अंगूठे से उपयुक्त और कुछ नहीं। यहां तक कि सरकारी महकमों और निजी दफ्तरों में तो अंगूठे के बिना हाजिरी तक नहीं होती। यानी वेतन लेना है तो बायोमेट्रिक मशीन ने अंगूठा पंच करना ही पड़ेगा। राशन भी बिना अंगूठा पंच किए नहीं मिलता जिसका अंगूठा पंच नहीं होता उसे राशन नहीं मिल पाता। इसलिए अपना अंगूठा हमेशा अपने पास रखना चाहिए। उसे अपना ज्यादा दिमाग लगाकर कहीं भूलने की जुर्रत नहीं करनी चाहिए। इस बार जिस तरह से अंगूठे को मान दिया गया है उससे लगता है कि अंगूठा है तो सबकुछ है। क्योंकि मोबाइल एप भीम से अंगूठे के पंच से खरीदारी कर सकेंगे। भीम नाम को भले ही बाबा साहेब के नाम पर रखा गया हो लेकिन पांचों अंगुलियों में यही सबसे मजबूत होती है ठीक महाभारत के भीम की तरह। एक बात और भी है कि दिनोदिन बढ़ती अंगूठे के सम्मान से शरीर के दूसरे अंग शायद ईष्र्या भी करने लगे। उनको लगने लगे कि दिनोंदिन उनका सम्मान कम होता जा रहा है, उनकी पहले जितनी कद्र नहीं रही। पर यह अंगूठा बिना किसी की परवाह किए आगे बढ़ता जा रहा है। किसी के रोकने से भी यह नहीं रुकेगा और अपना वर्चस्व हर जगह पर कायम करेगा। नोटबंदी के दौर में कैशलेस व्यवस्था थोड़ी-सी भी सफल होती है तो उसमें अंगूठे के योगदान को भुलाया नहीं जा सकेगा।