शनिवार, 8 अप्रैल 2017

सवाल 'उठने' की 'खुशी'

सवाल 'उठाना' अक्लमंदी का परिचायक है। यह एक कला भी है। किसी काम में संवेदनशीलता और कर्तव्यबोध होता है तब ही सवाल 'उठाया' जाता है। पर यह सवाल 'सो' कैसे जाता है। सवालों को भी इंसानों की तरह ही सोने की आदत है। 'उठता' सवाल है, पर उसका श्रेय उठाने वाले को दिया जाता है। उठने का मतलब एकदम से उठना भी नहीं होता है।

अगर बिस्तर या पलंग या फर्श पर आराम फरमा रहा है तो इसके आराम करने से इंसान को क्या तकलीफ है, जो उसे यूं बेकद्री से 'उठा' दिया जाता है। सवाल भी आखिर हमारी तरह थक जाते हैं, फिर थोड़ी देर सुस्ता लिया तो उसने जुर्म तो नहीं कर दिया। कुछ ऐसे भी सवाल हैं, जिनकी कभी सुध ही नहीं ली जाती। उनकी तरफ कोई मुंह उठाकर नहीं देखता। बस वे कुंभकर्णी नींद में सोते रहते हैं। अगर ऐसे सवाल को 'उठाया' जाता है तो जनता पर बेहद करम होता है, क्योंकि उससे संबंधी मामले के घपले का सारा काला चिट्ठा सामने आ जाता है। ऐसे सवाल उठाने वाले को पुरस्कार भी दिया जाना चाहिए। कुछ सवाल ऐसे भी हैं, जो उठने के बाद फिर उबासी लेकर सो जाते हैं। वैसे कुछ शख्स ऐसे होते हैं, जो इशारा करके दमदार या वाक्पटुता के धनी लोगों की सवाल उठाने में मदद करते हैं।

सवाल उठाने वाला महान होता है और सहयोग करने वाले थोड़े कम महान। सवाल सो कर उठ गया यह बात यही समाप्त नहीं हो जाती। क्योंकि सवाल उठने से पहले बैठता भी है। कई दफा बैठे सवाल को ही उठाया जाता है। बिल्कुल सावधान की मुद्रा में। इस मुद्रा में सवाल को देख सामने वाला कांप उठता है। प्रतिद्वंद्वी सोचता है कि सवाल कहां से आ उठा। वह भी इस रूप में, जिससे कदापि नहीं बचा जा सकता। जैसे उसने सवाल का रौद्र रूप देख लिया हो। ऐसे सवाल जल्दी से न तो बैठ पाते हैं न सो पाते हैं। इससे विपक्षी की नींद हराम हो जाती है। पर सवाल उठने के बाद मामले का पूरा रसास्वाद लेता है। उसका आनंद पब्लिक पैलेस पर भी नजर आता है।

सवाल उठाने की प्रथा मानव जन्म के साथ ही शुरू हो गई थी। या फिर मानव से पहले धरती पर सवाल जन्म लेने लगे थे। कई सवाल तो तब ही से नींद की आगोश में है। कई सवाल मर चुके हैं, जो कइयों का पुनर्जन्म हो चुका है। सवाल उठाने वालों को बुद्धिजीवी समझा जाता है। क्योंकि ये सब सवाल जन के प्रतिनिधि, मंत्री, अफसरशाही पर उठाए जाते हैं, जो कि विकास और प्रगति का सूचक होते हैं। कुछ सवाल ऐसे भी होते हैं, जो रोड पर लावारिश पड़े होते हैं। उनका कोई रखवाला नहीं होता। कुछ सवाल गड्ढों में पड़े सुबकते रहते हैं तो कुछ गंदगी में दुर्गंध मारते रहते हैं। बंद नल, हैंडपंप व नलकूप से पानी की जगह सवाल टपकते हैं।

कुएं, तालाब व बावड़ी आदि जलस्रोत भले ही पानी से न भरे हो, लेकिन सवालों से लबालब रहते हैं। रात के वक्त रोड लाइट बंद हो तो अंधेरे में कुछ दिखे या न दिखे, पर सवाल जरूर दिख जाते हैं, जैसे आसमान में तारे नजर आते हैं। सवाल कोई सा भी हो, उसे उठाना जरूरी है। वैसे सवाल को जवाब देकर गिराने की पुरजोर कोशिश की जाती है, लेकिन इसे अनुभव के साथ थामे रखने की कालाबाजी काम आती है। आजकल सवाल दागा भी जाने लगा है, जैसे सवाल नहीं वह कोई मिसाइल हो। जिसके मुख मंडल से निकलने के बाद गड़बड़ वाले इलाके में हलचल मच जाती है।