सोमवार, 3 जुलाई 2017

टंकी में कबूतर

सचिवालय की टंकी पर कबूतर उड़ रहा था। कभी इधर, कभी उधर। जैसे आज उसने तय कर लिया था कि सरकार को सबक सिखा कर ही रहेगा। जैसे ही कबूतर के उडऩे पर फडफ़ड़ की आवाज आती तो सचिवालय परिसर में टहल रहे कर्मचारी उसकी तरफ देख लेते। अब भला कबूतर तो कबूतर होता है वह टाइगर तो है नहीं, जो सबको भयभीत कर दे। बल्कि शांति दूत माने जाने वाले कबूतरों के बीच में से दौड़ कर उनको तंग करना तो मानव अपना धर्म समझते हैं। फिर भी कबूतर बार-बार सबका ध्यान अपनी तरफ खींचने में कामयाब हो रहा था। कोई हंसता या नहीं, लेकिन कबूतर जीभर कर इतरा रहा था कार्मिकों के बार-बार सिर उठाकर उसकी तरफ देखने पर। कार्मिकों की इस क्रिया पर वह अपनी विजयी पताका लहरा रहा था, जैसे उसने कोई किला फतह कर लिया था। कबूतर की बारंबार इस हरकत को कार्मिकों को भान हो गया था कि कबूतर उनके मजे ले रहा है। फिर भी कबूतर इधर-उधर उड़ता रहा। काफी देर हो जाने के बाद भी जब उसने यह महसूस किया कि अब उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा है। कबूतर टंकी से बार-बार गर्दन झुका कर सचिवालय परिसर की तरफ देखता। सब कार्मिक एक-दूसरे से बतिया रहे थे। 

अनवरत पत्रिका के मई 2017 के 'युवा व्यंग्य विशेषांक' में प्रकाशित व्यंग्य
कैन्टीन की तरफ भी मुड़ कर देखा तो उसने कहा, 'ये निट्ठले कार्मिक आज भी काम नहीं कर रहे हैं। आराम से कैन्टीन में बैठकर सुस्ता रहे हैं। बहुत से लोग दो वक्त की रोटी के लिए कड़ा परिश्रम करते हैं और सरकार इनको मुफ्त का वेतन दे रही है।' कुछ देर बाद कबूतर टंकी से गायब हो गया। जो कार्मिक सचिवालय परिसर में टहल रहे थे यकायक उनमें से एक की नजर टंकी पर गई। वहां कबूतर नहीं था। कार्मिक को संदेह था कि कबूतर टंकी में गिर गया। उसने कबूतर की जासूसी शुरू कर दी। कार्मिक की नजर एक पल के लिए भी नहीं झुकी। फिर उसने धीरे से कहा, 'लगता है कबूतर टंकी में गिर गया।' पास से गुजर रहे दूसरे कार्मिक ने उसकी बात सुन ली। उसने तीसरे कार्मिक को बोला, 'टंकी में कबूतर गिर गया।' लेकिन उसने सवाल नहीं पूछा। यह बात चौथे कार्मिक के पास पहुंची। धीरे-धीरे प्रत्येक कार्मिक के मुंह पर यह बात आ गई थी कि टंकी में कबूतर गिर गया। अभी सुबह के ग्यारह भी नहीं बजे थे कि इस हल्ले से पूरा सचिवालय हिल गया था। कर्मचारी ही नहीं, अधिकारी भी इस बात से वाकिफ हो गए थे। इस टंकी का पानी पूरा सचिवालय पीता था और आ


गंतुक भी। सबसे पानी का त्याग कर दिया। पानी हलक में उतारना तो दूर उसके हाथ भी नहीं लगाना चाहते थे। तब ही एक अधिकारी ने दूसरे से कहा, 'तुम तो टंकी का पानी पी सकते हो तुम्हें क्या फर्क पड़ता है। तुम यूं भी मांसाहारी हो।' दूसरे अधिकारी पलट कर जवाब दिया, 'फर्क कैसे नहीं पड़ता। इसमें और उसमें बहुत फर्क है। इस पानी को पी लूं तो बीमारी हो सकती है। वह भी ऐसी जो प्राण लेेने पर ही पीछे छूटेगी। बाहर से मौल का पानी मंगवा कर ही पी लूंगा। कम से कम बीमारी से तो बच सकूंगा।' उसकी बात सुनकर बाहर से बोतलबंद पानी मंगवाने की होड़-सी मच गई। चपरासी लोग बोतलबंद पानी लाने के लिए दौड़ पड़े। जैसे कोई मैराथन में हिस्सा ले रहे हो।  मैराथन भी ऐसी थी कि एक चपरासी अपने ही करीबी चपरासी को पराजित करने पर उतारू था। वे कह रहे थे कि अगर मैं पहले बोतल न लाया तो यह मुझ पर उम्रभर की नौकरी पर धब्बा लग जाएगा। कुछ चपरासी ऐसे भी थे, जो साब को तंग करना चाहते थे। कहावत तो यह है  अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे, लेकिन वे बोल रहे थे, 'आज आया अफसर कबूतर के नीचे।' उसने खुद तो बाहर जाकर गला तर कर लिया और साब इंतजार करते-करते थके जा रहे थे। वापस आए तो सफाई दी, 'साब बोतल खरीदने के लिए भीड़ लगी थी। नंबर ही नहीं आ रहा था। आपका नाम भी लिया तो उसने अनसुनी कर दी। शायद आपका कोई सताया हुआ दुकानदार लग रहा था। वह आज बदला पूरा करना चाहता था।' सचिवालय में गुहार लेकर आए अफसरों से मिलने के लिए मारे-मारे फिर रहे थे। परंतु कोई चैम्बर में सीट पर नहीं टिका था। कोई चैम्बर में था भी तो वहां से कबूतर पर चर्चा की आवाज आ रही थी। हड़कंप मचा हुआ था। चपरासी चैम्बरों की तरफ पानी की बोतलें ले-लेकर भाग रहे थे। जैसे कहीं पर आग लग गई हो, लेकिन अग्निशमन के पास पानी का अकाल पडऩे के कारण आग बुझाने के लिए अफरा-तफरी मची। दुनियाभर से सताए लोग कह रहे थे, 'लगता है कहीं पर बड़ी आगजनी हुई है।' थी तो यह आग ही, लेकिन यह आग मकान या दुकान में नहीं लगी थी न ही दफ्तर में रखी काले कारनामों की फाइलों में। यह आग लगी थी कुर्सी में समाए अफसरों के गले में। बोतल पाते ही साब उस आग को बुझाने के लिए टूट पड़े। परंतु यह आग एक बोतल में बुझने वाली नहीं थी। बाहर दुकानों पर भी बोतलें खत्म हो गई थीं, जैसे कोई भंडारा लुट गया हो। वैसे भंडारा कभी लुटता नहीं है, इसलिए उसे भंडारे की संज्ञा दी जाती है। लेकिन यह विलक्षण घटना थी। सचिवालय के अब तक के इतिहास में इस तरह की किसी घटना का उल्लेख नहीं था, लेकिन अब इस महाघटना को शामिल करना बेहद आवश्यक था। एक साब ने  बोतलें खरीदने का इमरजेंसी बिल पास कर दिया। 

साब लोग तो अपना दिमाग बोतलबंद पानी में खर्च कर चुके थे। तब ही एक चपरासी ने दिमाग लगाते हुए टंकी साफ करने के सुझाव को टेबल पर सरकाया। 'शाबाश, अब तक कहां थे?' चपरासी साब के पीठ थपथपाने से खुश था, मगर साब के सवाल से ऐसे लगा, जैसे वह सचिवालय से हमेशा गायब ही रहता है। खैर, जब चपरासी टंकी के पास गया तो उसके साथ एक-दो साब और चार-पांच चपरासी भी थे। चपरासी ने टंकी में देखा तो उसे कहीं भी कबूतर नजर नहीं आया। एक-एक कर सभी ने टंकी की टोह ली, लेकिन कबूतर जैसा कोई जीव उसमें नहीं था। तब ही किसी ने कहा, 'साब, ढकी हुई टंकी में कबूतर अंदर कैसे गिर सकता है?' यह सवाल ऐसे गिरा, जैसे किसी देश पर बमबारी हो गई हो। सब हां में हां मिलने लगे। पर कुछ का मन नहीं मान रहा था। उनको अभी संशय था और टंकी के पानी को अपनी जीभ पर नहीं लगाना चाहते थे। जैसे ही साब ने टंकी का पानी बहाने का आदेश दिया। सबने उस पर सहमति का ठप्पा लगा दिया। टंकी का पानी नाले में बहा दिया गया। 

नाले में जब पानी बह रहा था तब बाढ़ सा दृश्य नजर आ रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे थोड़ी देर बाद सारी बस्तियां उजड़ जाएंगी और लोग जीवन बचाने की जद्दोजहद करने लगेंगे। धीरे-धीरे टंकी का पानी खत्म होता जा रहा था। साब लोग इस बात को सोच कर खुश हो रहे थे कि उन्होंने अपना जीवन बचा लिया टंकी के दूषित पानी को बहा कर। वे यह भूल गए कि आज भी लोगों के नलों में दूषित पानी पीने के कारण लोग बीमार हो रहे हैं। विभाग में रोजाना शिकायतें पहुुंचती हैं, अफसरों के फोन की घंटियां बजती रहती हैं, मंत्री चुप्पी साधे बैठे रहते हैं, पर कार्रवाई के नाम पर ठेंगा दिखाया जाता है। बहते पानी को साब लोग कौतुहल भरी नजर से देख रहे थे और अपनी पीठ थपथाप रहे थे कि उन्होंने बहुत बड़ा काम किया है। इसलिए तो उनको इनाम तक मिलना चाहिए। तब ही पेड़ पर बैठे कबूतर पर एक साब की नजर गई, 'वो रहा कबूतर।' इतने में ही कबूतर वहां से उड़ कर साब लोगों के सिर पर फडफ़ड़ाने लगा, जैसे उनसे कह रहा हो, 'लोगों को जल बचाने की नसीहत देते हो और खुद जल व्यर्थ बहा रहे हो।' साब सिर से कबूतर दूर करने के लिए हाथ हवा में उड़ा रहे थे। 

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